Sunday, December 5, 2010

ddd

तुम्हारे लिए कल हम गुजरे ज़माने की बात हो जायेंगे
भूलोगे तुम हमें हम तुमको ना भूल पायेंगे
तुम्हारी यादो के संग चल पड़ा जिंदगी का कारवां
साथ बीते पल सपनो की सैर करायेंगे
जिंदगी की दौड़ में जब थक जायेंगे हम
तेरी तस्वीर पर सर रख कर सदा के लिए सो जायेंगे हम

Saturday, April 17, 2010

रो पड़े अम्बेडकर बाबा

रो पड़े अम्बेडकर बाबा

अम्बेडकर बाबा अपनी जयंती के दिन फूल मालाओ से ढंकी मूर्तियों से वो निकल कर अम्बेडकर पार्क वाले चौराहे पर आ गये थे. पथरो से निकलने  वाली धूल से उनका दम घुटा जा रहा था. दर्जनों क्रेन भी धूल उगल रही थी और बाबा चुपचाप उदास खड़े थे. बाबा बोले पहले पानी लाओ मेरा गला सूख रहा हैं. चौराहे पर घिसट रहे एक विकलांग ने अपनी बोतल पकड़ा दी. बाबा ने बोतल के गर्म पानी से गला तर किया. फिर बाबा बोले तो बोलते ही चले गए. देखो राजनीति भी कितनी गन्दी हैं. मेरे नाम पर एक से बढकर एक स्मारक बनवाए जा रहे लेकिन आसपास तो क्या दसियो किलोमीटर तक कही एक भी पौशाला नहीं हैं. लाखो पेड बिना बात बेरहमी से काट डाले गए. क्या किसी पेड का नाम अम्बेडकर नहीं रखा जा सकता था. मेरे सम्मान में उसे ही सब जगह लगवाते. मेरे नाम पर लाखो पेड क्यों शहीद हुए. क्यों हुई लखनऊ की बर्बादी. आज हर लखनऊ वाला मुझे कोसता हैं. अब  लोग कहने लगे हैं की  लखनऊ का नाम बदल कर अम्बेडकरगंज कर दो. मेरे नाम पर पौशाला होती और उससे लोग प्यास  बुझाते तो मुझे अच्छा लगता. मेरे नाम पर गोमतीनगर और आलमबाग में पेडो का जो कत्लेआम हुआ उससे मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ. ये बड़े बड़े स्मारक मुझे नहीं भाते. अब सुना हैं स्मारक की सुरक्षा के लिए फोर्स बन रही हैं. बेजान बुतों पर पैसा पानी की तरह बह रहा हैं और उधर पुलिस भर्ती घोटाले के बाद  घुट घुट कर मर रहे बेरोजगार पुलिस वालो के परिवार के आसूं पोछने वाला कोई नहीं. मैंने तो हजरतगंज जाना छोड़ दिया हैं. पता चला हैं की सुभाष जी की मूर्ति के बगल में दलित चेतना जगाई जा रही हैं. बताते हैं की वो परिवर्तन चौक हैं. वाकई परिवर्तन हो गया हैं. सुभाष जी... इस अम्बेडकर को माफ़ करिएगा. ये दलित चेतना जगाने वाले नहीं जानते की आपका कद  परिवर्तन चौक वाले नेता से कही ऊंचा हैं. दलित चेतना यही पास में फुटपाथ पर सोती हैं. कही कही दलित चेतना एसी में जाग्रत होती हैं. बड़ी बड़ी गाडियो में सत्ताधारी झंडो के साए में दलित चेतना जब सडको पर कुलांचे मारती हैं तब मै भी अपनी चेतना खो देता  हूँ.  अपने अगल बगल दलित नेताओं की मूर्तियों को देख चौंक उठता हूँ. नोटों की माला देख मै उन दलितों को याद करता हूँ जिनके लिए मै जीवन भर लड़ता रहा. आज की दलित चेतना में मुझे वो दलित दिख ही नहीं रहे.आज भी कलुआ बंधुआ हैं. मनरेगा भी उसकी हिम्मत नहीं बढा पा रही. इतना कहते कहते बाबा रो पड़े और बोले लखनऊ को बचा लो मेरे नाम पर इसे मत उजाडो. मीडिया भी नहीं बचा पा रहा लखनऊ को. बस इतना कह कर अम्बेडकर बाबा वापस मूर्तियों में समा गए.

Sunday, March 28, 2010

स्प्रिंग पर टिके सर वाले खिलोने

आज हमारी कहानी के पात्र हैं स्प्रिंग पर टिके सर वाले खिलोने. आप सब  इसे बचपन से अब तक देखते आ रहे होंगे.
स्प्रिंग वाले बूढ़े और बुढ़िया. जरा सा स्प्रिंग हिला दो और देखो कमाल. सच में कभी आपने देखा हैं हैं कितनी बाल सुलभ होती हैं इनकी मुस्कान. बूढ़े और बुढ़िया का जोड़ा हमारे लखनऊ के त्रिवेनीनगर में रहता था  . साथ में सुबह मोर्निंग वाक् और शोपिंग करते थे . बेटे और बेटिया सभी बाहर हैं.. मेरा उनके घर आना जाना हैं. उनकी छोटी बेटी से जान पहचान थी. अब छोटी बेटी बंगलौर में settle हैं.
अब कहानी आगे बढ़ाते हैं. अक्सर मैं उनके घर जाता तो पूछता की कोई काम तो नहीं लेकिन वो बेटा एक्टिव रहने के लिए अपना काम खुद करना चाहिए बस तुम आ जाते हो तस्सली हो जाती हैं. एक बार शर्मा अंकल फीवर में थे और मैं पहुच गया और डॉक्टर के पास ले गया आंटी बहुत परेशान थी कहने लगी बुढापे में अकेलापन बहुत खलता हैं. मैं १५ दिन में एक बार हालचाल जरूर ले लेता था. बात पिछले साल की हैं. शर्मा अंकल हम उन्हें इसी नाम से बुलाते हैं का दिवाली पर फ़ोन आया की बेटा बंटू आ रहा हैं अब वो लखनऊ में tcs में ज्वाइन करेगा.बहू भी लखनऊ में रहेगी. कुछ दिनों बाद बेटा बहू आ गए और शर्मा अंकल आंटी के दिन ख़ुशी से कटने लगे. decmember में जब शर्मा अंकल से मिलने गया तो बोले बेटा बाहर जाना चाहता हैं. क्या करूं. हमने पूछा कहाँ. वो बोले दुबई. मैंने बंटू से कहा वह तो मंदी हैं. लेकिन वो बोला सब कुछ final हैं. खैर शर्मा अंकल के बेटा बहू फिर चले गए. बूढ़े और बुढ़िया के जीवन में फिर से एकाकीपन आ गया. मैंने बहुत करीब से महसूस किया हैं बूढ़े और बुढ़िया का दर्द. हम और आप में से तरक्की के लिए घर छोड़ कर जाने में जरा भी नहीं सोचते लेकिन माँ बाप की आँखों से नींद चली जाती हैं. अक्सर मैं उनको कभी सब्जी लेते तो कभी टहलते देखा करता था. कुछ दिनों से नुझे भी समय नहीं मिला और सच कहूं तो धयान भी नहीं दिया. दो महीने बीत गए किसी ने बताया की शर्मा जी तो कई दिनों से अस्पताल में हैं उनकी कमर की हड्डी टूट गयी हैं. मैं अस्पताल पंहुचा तो वो बोले बेटा इस बार आने में तुमने देर कर दी तुम्हारी आंटी तो अब नहीं रही. बंटू भी नहीं आ पाया या कह लो की आया ही नहीं . मै तो अवाक रह गया. बातचीत में पता चला की आंटी की मौत तो सड़क हादसे में हुई थी जब वो सड़क पार कर रही थी. इस घटना का पता शर्मा जी को भी बाद में लग पाया. आंटी उन्ही की दवा लेने मार्केट आई थी. जब मैंने घर में बताया तो मम्मी बहुत नाराज हुई. 15 मार्च को शर्मा जी का फ़ोन आया वो बोले बेटा बंटू आ रहा हैं. दुबई में उसकी नौकरी छूट गए हैं. मैंने महसूस किया की अंकल की आवाज में ख़ुशी नहीं थी. वो आगे बोले बंटू के लिए कमरा खोज दो. मै जितने दिन हूँ अकेले ही तुम्हारी आंटी की यादो के साथ अपने मकान में रहना चाहता हूँ.बस. मैं उनके घर कल पहुचा तो देखा की वो बिलकुल शांत हैं. मुझे देख वो उठे और बोले बेटा तरक्की किसे कहते हैं. क्या ऐसे ही आगे बड़ा जाता हैं. अपने बेटे से बेहद नाराज. मेरी नज़र सामने की अलमारी पर पड़ी वहा स्प्रिंग वाले बूढ़े और बुढ़िया रखे थे. खिलोनो की स्प्रिंग खराब हो चुकी थी सर लटक रहे थे लेकिन मुस्कराहट कायम थी. इधर शर्मा जी भी इन खिलोनो की तरह थे जोड़ा टूट गया था और चेहरे की मुस्कराहट उजड़ चुकी थी. जाते जाते अंकल बोले तुम ऐसी तरक्की मत कर लेना की अपने माँ बाप को छोड़ देना और आते जाते बने रहना पता नहीं ये खिलौना कब टूट जाए. सुन कर मैं वहा से चला आया. क्रमश...

Saturday, March 27, 2010

मीडिया के भांड

 जोकर तो आपने देखे ही होंगे . जोकर को जरा हकीकत का रूप देते हैं.यह कहानी नहीं आज का reality शो हैं. पहले जमाने में राजा के दरबार में मनोरंजन करने के लिए भांड रखे जाते थे. लखनऊ में तो एक मोहल्ले का नाम ही भाँड़ो टोला हैं. वैसे तो हर सेक्टर में जोकर या कहें भांड मौजूद हैं लेकिन मीडिया में इनकी भरमार हैं. अधिकतर  पत्रकार अपने बॉस के लिए भांड बनने की प्रतियोगिता में शामिल हैं. भांड चैम्पियन  हमारे एक senior जो की महिला संपादक के साथ काम कर रहे  थे अचानक जब वो पुरुष संपादक के साथ जुड़े तो कई दिन तक उन्हें  एस मैंम कहते रहे. इस बात का खुलासा खुद पुरुष संपादक ने किया. एस बॉस का रट्टा लगाने वाले यह महोदय ऑफिस में अजीबोगरीब हरकत करने के लिए दूर दूर तक कुख्यात हैं. वो काम में कम काम लगाने में जयादा जुटे रहते हैं. सहयोगियो के अच्छे काम का क्रेडिट लेने में इनका कोई जोड़ नहीं. गलती पर तो ये दूसरो को टोपी पहनाने  में माहिर हैं. बॉस और लडकियों के आगे बिलकुल बच्चे बन जायेंगे. पचास पार के बाद भी........ मै जब भी कोई जोकर देखता हूँ उन्हें याद किये बिना नहीं रहता.खैर थोडा सा उनका  जिक्र जरूरी था. मीडिया में उनके जैसे  कई जोकर या भांड हैं जो काम करने वालो को आगे नहीं बढ़ने देते हैं. और बॉस... उनको तो ऐसे ही जोकर चाहिए जो झुकने को कहा जाए तो वो लेट जाएँ. ऐसे बहुतेरे भांड में से एक और शख्श हैं जो बॉस की हर अदा पर फ़िदा रहते हैं. बॉस के मन में कोई भी विचार उनके दिमाग रुपी एंटिना से ही होकर गुजरता हैं. बॉस के मुह से निकले किसी  भी शब्द को वो अमृतवचन बताने से नहीं चूकते और साथ में यह भी जरूर कहते की  अरे यही तो मै भी सोच रहा था. आप का भी ऐसे भाँड़ो और जोकर से पाला जरूर पड़ा होगा. हमारे  साथ आये और ऐसे मीडिया के जोकर और भाँड़ो को बेनकाब जरूर करे.

Thursday, March 25, 2010

मेरे दाढ़ी वाले बाबा

मुझे अपना वादा याद हैं. आपको खिलोनो के सहारे कहानी सुनाने का क्रम शुरू होता हैं अब.
खिलोनो की दूकान पर मुझे एक साधू की मूर्ति दिखाई दी मुझे याद गए बचपन के वो साधू बाबा चेहरे पर चमकता तेज घनी काली  दाढ़ी. कानपुर की एक सरकारी कालोनी में बीता हैं बचपन याद हैं यह बाबा. महीने में दो बार वो मोहल्ले में आते थे. हर पूरनमासी के दिन उनकी आवाज सुनाई देती थी. बस वो इतना  ही बोलते थे आज शाम को भण्डारा हैं आप सभी जो सहयोग बन पड़े कर दें. मैंने अपनी आख से देखा हैं की हर घर से घी आटा शक्कर जिससे जो बन पड़ता वो देता. उन बाबा के प्रति आदर सबके  मन में था. यही कोई चार वर्ष की उम्र रही होगी मेरी स्कूल जाना शुरू कर दिया था . इतने सीधे  बाबा की कभी भी किसी से कुछ लेना या किसी प्रकार का लालच मैंने नहीं देखा शाम को भण्डारा देख यकीन नहीं होता था की किस प्रकार बाबा ने मोहल्ले को एक सूत्र में बाँध रखा था . मोहल्ले की सारी औरतें रसोई संभालती और पुरुष बड़े प्रेम से खाना खिला रहे होते लगता था की जैसे कही कोई शादी का इंतजाम हो. मेरे घर में माँ और मेरे बाबा हर भंडारे में जाते. बाबा जब मुझे ना देखते तो मेरे बारे पूछते. मेरे घर जब भी वो आते तो सब लोग कहते इनके पैर छुओ लेकिन वो कभी भी बच्चओ से पैर नहीं छुआते थे कहते थे ये तो बाल गोपाल हैं इनमे भगवान् बसते हैं. पता नहीं बचपन से ही उनके प्रति मेरे मन में आदर था वो जब रामकथा सुनाते तो लगता था जैसे हम अयोध्या के राजदरबार में बैठे हो. मोहल्ले में किसी के घर कोई संकट हो हाजिर रहते थे बाबा. बड़ी से बीमारी पर भी बड़ी आसानी से कहते हनुमान चालीसा पढो राम राम कहो देवी माँ सब ठीक कर देंगी. बाबा के इतना कहने पर ही बहुत से लोग राहत महसूस करते थे.  वो कहा से आये ये किसी को नहीं मालूम था. हम बच्च लोग जब कहानी सुनाने को कहते तो कहानी सुनाते. इतने सहज की इसका अहसास अब होता हैं जब आज के बाबा लोगो को देखता हूँ तो उनके  लिए आदर और बढ़ जाता हैं.  एक समय मेरा स्कूल जाने का मन नहीं कर रहा था मुझे जबदस्ती स्कूल भेजा जा रहा था तभी वो बाबा आ गए और बोले मत भेजो स्कूल आज बाल गोपाल  मेरे   साथ रहेंगे. दिन भर उन्होंने मुझे कई कहानिया सुनाई. हर कहानी में कुछ सन्देश. मुझे छोड़ने घर आये. एक  दिन सुबह सुबह घर पर आये और बोले मैं सब मोहल्ले वालो से मिलना चाहता हूँ मैं अपनी कहानी सुनाऊंगा. अब मेरे जाने का समय आ गया हैं. भगवान् का आदेश आ चुका हे. उस दिन मुझे याद पड़ता हैं शनिवार का था. बाबा अपनी कहानी सुना रहे थे. बाबा एक बड़े डॉक्टर थे कोलकाता में रहते थे एक खुशहाल परिवार था. डॉक्टर के पेशे में उनसे एक चूक हो गई. वो अस्पताल से अपने घर आ गए और एक इमरजेंसी केस आ गया लेकिन वो भोजन करने लगे और उस मरीज की मौत हो गई मरीज .एक २२ साल का युवक था जिसकी शादी को दो महीने ही हुआ था.   युवक के माँ बाप और पत्नी का रो रो कर बुरा हाल था.  बाप और पत्नी ने दुःख के मारे अस्पताल में दम तोड़ दिया एक साथ तीन मौते मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. पत्नी के समझाने के बाद भी मैं अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाया और रात में घर छोड़ कर चला आया. मेरे बेटे ने भी कोई खोज खबर नहीं ली. बस समझ में आ गया की संसार मिथ्या हैं. आज २० साल हो गएँ. मोहल्ले के मंदिर में मुझे गुप्ता जी ने जगह दिला दी तब से आप लोगो के बीच हूँ  अभी मुझे खबर मिली की मेरी पत्नी ने सुबह ये संसार छोड़ दिया हैं और उसकी अभी तक की देखभाल उस महिला ने की थी जिसका बेटा मेरी चूक से दम तोड़ गया था. उस औरत ने मुझे कभी भी अपने बेटे बहू और पति की मौत के लिए दोषी नहीं माना.बाबा अपनी कहानी सुना रहे थे और मेरा बाल मन बड़े गौर से सुन रहा था. मोहल्ले वालो की आँखों में आसूं थे. माँ और मेरे बाबा भी रो रहे थे. अंत में बाबा बोले सुबह भण्डारा हैं आखिरी हैं. सबलोगो को आना हैं मेरी तरफ देख कर बोले बाल गोपाल भी जरूर आयें. बाबा मंदिर जहा वो रहते थे लौट गए. मोहल्ले वालो ने मेरे घर पर रात गुजारी. सब के मन में था की बाबा के बिना क्या होगा. सुबह माँ ने मुझे स्कूल नहीं भेजा.  भण्डारा में सुबह चार बजे से ही भीड़ जुटनी शुरू हो चुकी थी. माँ और बाबा भी पांच बजे तक पहुच चुके थे. कुछ देर बाद हम भी पहुचे. सबको बाबा अपने हाथ से दही जलेबी खिला रहे थे. खाने खिलाने का क्रम १२ बजे तक चला.  इसके बाद बाबा ने सबको कहा की अब हम चलते हैं हमारा समय आ गया हैं पूजा पर बैठ रहा हूँ दो बजे के बाद ही कोई मंदिर में प्रवेश करेगा. कोई शोर नहीं करेगा. सारे मंदिर परिसर में सन्नाटा छा गया. मुझे भी समझ में नहीं आ रहा था की क्या करे. किसी तरह दो बजे. कुछ देर बाद लोग मंदिर में गए. देखा बाबा खामोश बैठे हैं. एक बक्सा खुला पड़ा हैं. एक तस्वीर पड़ी हैं. बाबा की आखें बंद हैं, कोई हलचल नहीं.सामने  दीपक जल रहा हैं. थोड़ी देर बाद कुछ लोग बाहर निकले और बोले बाबा हम सबको छोड़ कर चले गए. तस्वीर बाबा के परिवार की थी. साथ में एक पत्र भी. सबको पयार और ना रोने का वादा लिया था बाबा ने. पत्र के साथ डाक्टर की डिग्री भी पड़ी थी. उस पर लिखा था डाक्टर शिव नाथ शर्मा मेयो हॉस्पिटल. उस दिन के बाद से कई दिन हमारे यहाँ मातम छाया  रहा. आज इस घटना को कई साल बीत गए हैं लेकिन  वही बचपन वाले बाबा ही मेरे आदर्श हैं. ना नाम की चाह ना  लालच. आज के बापू और बाबा से बहुत दूर. मेरे दाढ़ी  वाले  बाबा. आज बहुत याद आ रहे हूँ तुम. खिलोनो की दूकान वाला भी मेरे चेहरे पर आते जाते भाव देख बोल  बैठा ले लो यह साधू एक ही पीस बचा हैं. मैं वो साधू की मूर्ति ले ली और अपने  बचपन के बाबा को हमेशा के लिए अपने घर में रख लिया.

Saturday, March 13, 2010

खिलोने सबके साथी

खिलोने हर उम्र के साथी होते हैं. जरा  इनके पास  जा  कर तो  देखिये. महसूस  तो कीजए. खिलोने समाज  का  आइना  भी  होते हैं. किसी  gallery  या  किसी  showroom  या फिर  सड़क  के  किनारे  लगी  दुकानों  पर  सजे  खिलोने. कोई  कितना  भी टेंशन  में  हो  ये  बेचारे  तो  सबकी  सुनते  हैं  और  सबका  स्वागत  करते  हैं. खिलोनो  में रंग  भरते हाथ आकार देते  कलाकार और कुम्हार  की चाक  यही  तो  हैं जीवन  मुस्कराते  तो कभी  बोल  उठने  को  बेताब  खिलोने  जिंदगी  का अहसास  कराते  खिलोने. सृजन  का  जो  सुख  मूर्तिकार  या  कुम्हार  को  मिलता  हैं  उसे  खरीदने  और सजाने  में  भी उससे कम सुख नहीं मिलता हैं.  बचपन  इन्ही  खिलोनो  की  ऊँगली  पकड़  कर  आगे  बढता  हैं  और  न  जाने  कब  हम  यथार्थ  के  घने  जंगल  में  खो  से  जाते  हैं. कुछ  लोग  ऐसे  भी  हैं  जो दुनियादारी  के  जंगल से  भी बाहर   आ  इन  खिलोनो  में  खो  जाते  हैं. और  खिलोनो  के  सहारे  फिर  बसाते  हैं अपनी  ही  दुनिया. बचपन  कभी  इन  खिलोनो  में  झाकता  हैं  तो  कभी  अपने  बच्चो  में. खिलोनो  की  अपनी  ही  भाषा होती  हैं. हम  खिलोनो  के  सहारे  आपको  बचपन  में  ले  जायेंगे.  आप  हैं  ना  हमारे  साथ . किसी  भी  खिलोने  के  सहारे  शुरू  होगी  एक  कहानी. जल्दी  ही मिलेंगे.